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लौट आओ गौरैया
-नवनीत कुमार गुप्ता
कभी सर्वत्र दिखाई देने वाली, हमारे घर आंगन में फुदकती प्यारी सी चिड़िया गौरैया-स्पैरो- आज एक संकटग्रस्त पक्षी हैं जो पूरे विश्व में तेजी से दुर्लभ हो रही है. एक-दो दशकों पहले तक गौरेया के झुंड के झुंड हमारे घरों और सार्वजनिक स्थलों की खिड़कियों, चबूतरों, यहां तक कि कमरों के अंदर भी, देखे जा सकते थे. उसका फुदकना और चहचहाना हर किसी का मन मोह लेता, उसको दाना चुगते देखना अच्छा लगता. हमारे बचपन की बहुत सी यादें इस नन्ही सी चिडिया की अठखेलियों से जुडी होंगी.
घरेलू गौरैया एक बुध्दिमान चिड़िया है जिसने अपने को आश्रय परिस्थितियों के अनुकूल बनाया. यही कारण रहा कि यह विश्व में सबसे ज्यादा पाई जाने वाली चहचहाती चिड़िया बन गयी थी परन्तु आज यह संकट में है. इसकी संख्या तेजी से कम हो रही है और निकट भविष्य में इसके विलुप्त होने का खतरा है. भारत ही नहीं यूरोप के बड़े हिस्सों में कभी सामान्य रूप से दिखाई देने वाली गौरैया अब काफी कम रह गई है. नीदरलैंड में तो घरेलू गौरैया को दुर्लभ प्रजाति के वर्ग में रखा है. ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, चेक गणराज्य, इटली, फिनलैंड और बैल्जियम में भी इसकी संख्या तेजी से गिरी है.
भारत में गौरैया के कई नाम हैं, गौरा और चटक जैसे. तमिलनाडु तथा केरल में इसे कूरूवी कहते हैं, तेलगू में पिच्चूका, कत्रड़ भाषा में गुब्बाच्ची तथा गुजरात में इसे चकली कहते हैं. मराठी में इसे चिमनी, पंजाबी में चिड़ी, जम्मू तथा कश्मीर में चेर, पश्चिम बंगाल में चराई पाखी तथा ओड़िशा में घरचटिया कहा जाता है. उर्दू भाषा में चिड़िया तथा सिंधी भाषा में झिरकी कहा जाता है.
घरेलू गौरैया पासेराडेई परिवार की सदस्य है. कुछ लोग इसे वीवर फिंच परिवार से संबंधित भी मानते हैं. नर गौरैया को सीने के रंग के आधार पर पहचाना जा सकता है. इसकी लंबाई 14 से 16 सेमी. होती है. इसके पंखों का फैलाव 19 से 25 सेमी. तक होता है. चहचहाने वाली इस चिड़िया का भार केवल 26 से 32 ग्राम होता है. नर गौरैया का सिर, गाल तथा अंदर का भाग धूसर होता है तथा सीने के ऊपर, गला, चोंच व आंखों के बीच का भाग काला होता है. गर्मी में गौरैया की चोंच का रंग नीला-काला तथा पैर भूरे रंग के हो जाते हैं. सर्दी में इसकी चोंच का रंग पीला भूरा हो जाता है. एक प्रजनन अवधि में इसके कम से कम तीन बच्चे होते हैं. इनके अंडे अलग-अलग आकार के होते हैं. अंडों को सहने का काम मादा गौरैया के जिम्मे होता है. गौरैया 10 से 12 दिनों तक अंडे सहती है जो सभी चिड़ियों की अंडे सेने की अवधि में सबसे छोटी है. गौरैया की प्रजनन सफलता उम्र बढ़ने के साथ-साथ बढ़ती जाती है.
गौरैया के घोंसले घरों की सूराखों में, चट्टानों में, नदी के किनारे, झाड़ियों में, आलों में या प्रवेश द्वारों पर होते हैं जो कि घास के तिनकों से बने होते हैं और उनमें पंख भरे होते हैं. ये मानव निर्मित स्थलों, दरारों और बगीचों में भी अपना घोंसला बनाती हैं. कभी-कभार घरेलू गौरैया अन्य चिड़ियों के घोंसले भी हड़प लेती है और उनको द्वारा बनाए गए घोंसलों के ऊपर ही अपना घोंसला बना लेती है. गौरैया सामाजिक पक्षी है, अधिकतर झुंड में उड़ती हैं. एक झुंड 1.5 से 2 मील की दूरी तय करता है. भोजन तलाशने के लिये यह अधिक दूरी भी तय करती हैं. गौरैया दिन-भर भोजन जुटाने में लगी रहती है. गौरैया का प्रमुख आहार अनाज के दाने हैं. अगर यह उपलब्ध न हो तो यह अन्य आहार से भी अपना पेट भर लेती है. घरेलू गौरैया परजीवी प्रकृति वाली होती है. यह घरों से बाहर फेंके गए कूड़े-करकट में से अपना आहार ढूंढ लेती है.
आधुनिक युग में रहन सहन व वातावरण में आये बदलावों के कारण आज गौरैया पर कई खतरे मंडरा रहे हैं. सबसे प्रमुख खतरों में उनके आवास स्थलों का उजड़ना है. आज हमारे घरों में आंगन होते ही कहॉ हैं, फिर बेचारी गौरैया घोंसला बनाए कहां? आधुनिक युग में पक्के मकानों की बढ़ती संख्या एवं लुप्त होते बाग-बगीचे भी इसके आवास स्थल को छीन रहे हैं. इसके अलावा भोजन की कमी भी गौरैया के अस्तित्व के लिए गंभीर चुनौती है. गौरैया प्राय: दाना खाती है लेकिन उसके बच्चों को प्रोटीन के लिए नन्हे कीड़े चाहिए, जिन्हें मां गौरैया ढूंढकर लाती है और उनके मुंह में अपनी चोंच से डालती है. शहरों में आवास बढ़ने और हरियाली की कमी के कारण चिड़ियों को कीड़े-मकोड़े अपने बच्चों की आवश्यक खुराक के लिए नहीं मिल पाते. मानवीय जीवनशैली में आए बदलाव के कारण अब घरों में दालों को छतों पर नहीं डाला जाता. भोज्य प्रदार्थों की उपलब्धता में कमी गौरैया के कम होने का एक प्रमुख कारण है.
कई अन्य मानवीय गतिविधियां भी गौरेया के अस्तित्व को चुनौती दे रही हैं , जैसे मोबाइल फोन के टॉवर से निकलने वाली रेडियो तरंगे. इनसे भोजन की तलाश में निकली गौरैया की सोचने-समझने की क्षमता कम हो जाती है और वह रास्ता भटक जाती हैं. रेडियो तंरगों के प्रभाव से अण्डों के बाह्य आवरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है. इसके अलावा बढ़ते प्रदूषण का भी असर गौरैया पर पड़ रहा है. सीसा रहित पेट्रोल के उपयोग करने पर इसके दहन से मिथाइल नाइट्रेट नामक यौगिक बनता है जो गौरैया जैसे छोटे जंतुओं के लिए काफी जहरीला साबित होता है.
पहले गौरैया को खेत-खलिहानों और घरों में देखा जा सकता था. लेकिन अब तो इन्हें देखे सप्ताह हो जाते हैं. कभी हमारे घरों में तिनका लाकर घोंसला बनाने वाली गौरैया अपने फुदकने, दाने चुगने, गर्दन घुमाकर अपने आसपास के माहौल को देखते रहने की चौकन्नी प्रवृत्ति के कारण हमारा मन मोह लेती थी. लेकिन अब यह प्यारी सी चिड़िया हमारी गतिविधियों के चलते हमसे दूर होती जा रही है.
असल में प्रकृति में सभी जीवों का अपना-अपना महत्व है. खाद्य शृंखला में गौरैया की भूमिका भी महत्वपूर्ण है जिसके कारण इस जीव का संरक्षण आवश्यक हो गया है. वर्तमान समय में इसके संरक्षण को लेकर प्रयास हो रहे हैं. गौरैया के संरक्षण की भावना के अनुरूप पिछले साल से 20 मार्च को विश्व गौरैया दिवस के रूप में मनाया जाने लगा है. गौरैया के अस्तित्व के लिए हम सभी को अपने-अपने स्तर पर प्रयास करने होंगे ताकि यह प्यारा सा, नन्हा सा जीव फिर से हमारे घर-आंगन में चहक सके, हमारे जीवन से लुप्त न हो जाये . हम अपनें घरों में उचित स्थानों पर पानी, बाजरा, टूटा चावल आदि रखकर अपना योगदान दे सकते हैं.
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विलुप्त होती गौरेया !
January 2, 2012
बचपन में जिस गौरेया को देखकर हम लोग बड़े हुए आज वही संकट में है. उत्तराखंड में जिसे घंड्या-घंड्यूड़ी कहते हैं. वही गौरेया! गांव में मां,दादी अथवा नानी की गोद में होश संभालते ही चिड़िया के नाम पर इसी गौरेया को सबसे पहले जाना व पहचाना. केंद्र सरकार के पर्यावरण व वन मंत्रालय की रिपोर्ट कहती है कि भारत में पक्षियों की ८७ प्रजातियां संकट में हैं. हालांकि इनमें अभी गौरेया शामिल नहीं है. केंद्रीय पर्यावरण व वन मंत्रालय की संसद में दी जानकारी के अनुसार गौरेया(पासेर डोमेस्टिकस) की संख्या में कमी आई है.
कुछ साल पहले अमूमन हर घर-आँगन में दिखाई पड़ने वाली अपनी सी घरेलू गौरैया, अब ढूँढ़े से भी नहीं दिखती. पर्यावरण को होने वाली मानवजन्य क्षति की एक और मिसाल बनने जा रही यह नन्ही-सी चिड़िया सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में तेजी से दुर्लभ होती जा रही है.
यह सुखद बात है कि बर्ड लाइफ इंटरनेशनल ने गौरेया को अभी संकटग्रस्त पक्षियों की सूची में शामिल नहीं किया है, लेकिन अनुसंधान संगठनों और सलीम अली पक्षी विज्ञान केंद्र तथा कोयंबटूर और मुंबई के प्राकृतिक विज्ञान संग्रहालय समिति समेत कई गैर सरकारी संगठनों के अध्ययन बताते हैं कि घरेलू गौरेया की संख्या घटी है.
विश्वभर की चहेती, लगभग पूरे विश्व में चहचहाने वाली इस चिड़िया का मूल स्थान एशिया-यूरोप का मध्य क्षेत्र माना जाता है. मानव के साथ रहने की आदी यह चिड़िया मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ विश्व के बाकी हिस्सों में जैसे उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका, दक्षिणी अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैंड में भी पहुँच गई.
गौरैया को एक बुद्धिमान चिड़िया माना जाता है. इसकी खासियत है कि यह अपने को परिस्थिति के अनुरूप ढालकर अपना घोंसला, भोजन उनके अनुकूल बना लेती है. अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण यह विश्व में सबसे ज्यादा पाई जाने वाली चहचहाती चिड़िया बन गई.
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आजा चिड़िया आजारी, चुग-चुग दाना खाजारी
कानन झींगन
23 अगस्त 2010, नवभारत टाइम्स
चिड़िया अपने नाती के मुंह में ग्रास डालते हुए मैं वही गाना गाती हूं जो बरसों पहले उसकी मां के लिए गाती थी- 'आ जा चिड़या आजारी / चुग-चुग दाना खाजारी / आती हूं मैं आती हूं / फुदक-फुदक कर आती हूं / चुग-चुग दाना खाती हूं / झट ऊपर उड़ जाती हूं.' पर एक भी चिड़िया नहीं आती. लेकिन तब तो आंगन भर जाता था. एक ग्रास बच्चे के मुंह में डालती और एक के नन्हे-नन्हे टुकड़े कर के आंगन में छितरा देती. बड़ों के नाश्ते और दोपहर के खाने में भी उनका हिस्सा होता ही था. पंत की चिड़ियों की तरह 'टी वी टी टुट टुट' की चहक से आंगन गूंजने लगता.
यह पक्षी बच्चों के खेल में भी भागीदार रहते थे. बचपन में स्कूल से आकर मैं और भैया सारी दोपहर छत पर बिताते. एक टोकरे में रस्सी बांध कर, उसमें एक डंडी अटकाते और उसे उलटा कर के रख देते. अंदर गेहूं के दाने बिखेर देते. रस्सी का एक छोर पकड़ कर दूर बैठ जाते. चिड़ियों का झुंड आता तो रस्सी खींच देते. ज्यादातर तो उड़ जातीं. बस एक हाथ में आती. कटोरियों में रखी कभी लाल और कभी नीली स्याही में कपड़ा भिगो कर हम उसके पंख रंग देते. अपनी मुट्ठी में उसकी तेज धड़कन और नर्म स्पर्श महसूस करके, वापस आकाश में उड़ा देते. जब-जब हमारी रंगी चिड़िया आती तो अनोखा जुड़ाव लगता.
घरों के दरवाजे-खिड़कियां खुली रहतीं. इन पखेरुओं की बेरोकटोक आवाजाही बनी रहती. दीवार पर टंगे शीशे को ढक कर रखना पड़ता. कभी भूल जाते तो अपना अक्स देखकर पक्षी उत्तेजित हो जाते. दूसरी चिड़िया समझकर उसे भगाने के लिए चोंच मार-मार कर घायल हो जाते. शीशे पर निशान तो पड़ ही जाते, उनकी तीखी आवाजें कभी-कभी परेशान कर जातीं.
जब घरों में पंखे लगे तो इन पक्षियों के टकराने का खतरा बना रहता. गर्मी में पंखा बंद करना भी मुश्किल होता. एक बार पेलमेट पर बनाए घोंसले में चिड़िया ने अंडे दिए. बच्चे निकले तो मां-बाप दोनों सारा दिन चोंच में कुछ-कुछ भरकर लाते और बच्चों के गले में उतार देते. उन के आने और जाने पर बच्चों की चीं-चीं पंचम स्वर तक पहुंच जाती. चिड़िया एक बार दाना लाने में जितना समय लगाती, चिड़ा उतने में चार बार खिला जाता. घर में इस परिवार के आदर्श समर्पित भाव का किस्सा बार-बार सुना-सुनाया जाता. फिर एक दिन ऐसे बेतहाशा आने-जाने वाला चिड़ा पंखे की चपेट में आ गया.
धड़ कहीं गिरा, सिर कहीं. खून के कतरे पलंग और दीवारों पर छिटक गए. मेरे दोनों बच्चे रोने लगे. मैंने कांपते हाथों से रूमाल से उसका सिर उठाकर धड़ पर जमा दिया. उम्मीद थी कि ताजा कटा शरीर जुड़ जाएगा. पर नहीं, वह तो अपने बच्चों और मीत के लिए कुर्बान हो चुका था. दो तीन दिन तक चिड़िया उदास सी, भारी पंखों से उड़कर बच्चों को खाना देने आती. फिर एक नया चिड़ा साथ आने लगा. पर वह दरवाजे पर ही बैठा रहता चिड़िया के इंतजार में. चिड़िया बच्चों को दाना देकर आती तो इकट्ठे उड़ जाते. यह क्रम तब तक चला जब तक कि बच्चे उड़ना नहीं सीख गए. उन्हें खुले आकाश में उड़ान भरना सिखाकर वह जोड़ा नया घर बसाने निकल पड़ा. कौन कहता है कि ये पक्षी सोच नहीं पाते. अपने भविष्य की योजना नहीं बना पाते. नया जीवन शुरू करने से पहले अपने दायित्व को पूरा करना, और साथी का इतने धैर्य से प्रतीक्षा करना आपसी रिश्तों को निभाने की मिसाल बन गया.
आजकल ए.सी. और कूलर के लिए या सुरक्षा के नाम पर घरों को बंद किला बना दिया गया है. कौवों, चीलों, मैनों और सांपों से बचने के लिए ये नन्हे जीव पेड़ छोड़ कर घरों के रोशनदान, अलमारियां, पेलमेट आदि पर आशियाना बना लेते हैं. अब तो वे लुप्तप्राय जीवों में शामिल कर लिए गए हैं. इसके लिए मोबाइल टावर की तरंगों, कीड़ों को मारने के लिए इस्तेमाल में आने वाली विषैली दवाओं को जिम्मेवार ठहराया गया है. चिड़िया गुजरे जमाने की कथा-कहानियों का हिस्सा बन गई हैं. बच्चों को बहलाने वाली चुग-चुग दाना खाने वाली क्या अब कभी उत्तर नहीं देगी- 'आती हूं मैं आती हूं, फुदक-फुदक कर आती हूं?'
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