लतरी या खेसारी एक वनस्पति है जिससे दाल प्राप्त होती है. इसकी दाल सब दालों से ज्यादा पौष्टिक, सुरक्षित एवं कम कीमत पर मिलने वाली एकमात्र दाल है. दुनिया के अनेक राष्ट्रों में इसकी खेती एवं इसका उपयोग प्राचीनकाल से किया जाता रहा है. खेसारी दाल का वनस्पति शास्त्र का नाम लेथाइरस सेटाइवस एवं अंग्रेजी का नाम ग्रास पी, मराठी का लाख-लाखोड़ी, हिन्दी, असमी, बंगला, बिहारी नाम खेसारी-खेसाड़ा है. पूर्वी उत्तर प्रदेश में इसे लतरी कहते हैं.
Composition of four samples of grass pea seeds | |
Components | Range |
Water | 7.5-8.2 |
Starch | 48.0-52.3 |
Protein | 25.6-28.4 |
Acid detergent Fibre | 4.3-7.3 |
Ash | 2.9-4.6 |
Fat | 0.58-0.8 |
Calcium | 0.07-0.12 |
Phosphorus | 0.37-0.49 |
Lysine | 18.4-20.4 |
Threonine | 10.2-11.5 |
Methoionine | 2.5-2.8 |
Cysteine | 3.8-4.3 |
जहरीली नही है खेसारी दाल |
-डा. शान्तिलाल कोठारी
दालों की कमी एवं बढ़ती कीमतों को लेकर देश में हो-हल्ला मचा है. गरीब जनता के भोजन से दाल लुप्त हो जाने पर चिंता जताई जा रही है. लेकिन दुर्भाग्य से आयात को बढ़ावा देने के अलावा सहज उपलब्ध अन्य विकल्पों पर विचार नहीं किया जा रहा है. दालों की कमी क्यों हुई? अधिकांश जनता की पहुंच से दाल के दूर होने का सिलसिला कैसे प्रारंभ हुआ, इस पर सोचने एवं चर्चा करने को स्वास्थ्य एवं कृषि विभाग तैयार नहीं है. आखिर क्यों?
खेसारी दाल जहरीली दाल नहीं
केन्द्र सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने दिनांक 2 फरवरी 1961 को बिक्री एवं संग्रह पर अन्न व अपमिश्रण कानून 1955 रूल 44-अ के तहत खेसारी दाल पर प्रतिबन्ध लगाने की सलाह राज्य सरकारों एवं केन्द्र शासित प्रदेशों को दे दी, जैसे यह जहर से भी ज्यादा जहरीली दाल है. यह सलाह भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद द्वारा गठित गोपालन समिति की रिपोर्ट आने के 8 महीने पहले ही दे दी गई थी. गोपालन समिति ने दिनांक 2 अक्टूबर 1961 को मध्यप्रदेश के गांधी मेमोरियल अस्पताल, रीवा (म.प्र.) में यह रिपोर्ट प्रस्तुत की थी. रिपोर्ट ने भोजन में इस दाल के उपयोग को 25% तक सुरक्षित ठहराया, जबकि शारीरिक आवश्यकता मनुष्य के लिये मात्र 10% तक ही होती है.
स्वास्थ्य विभाग की मानें तो लेथारिज्यम (घुटने के नीचे के हिस्से का लंगड़ापन) के लिए खेसारी दाल ही अकेले जिम्मेदार है. खेसारी दाल के उपयोग की सच्चाई को जानने के लिये स्वास्थ्य एवं कृषि विभाग ने राज्य एवं केन्द्रीय स्तर पर पिछले 55 सालों के दौरान 16 समितियों/कमेटियों से ज्यादा का गठन किया. एक भी कमेटी ने इस दाल के उपयोग को आहार में हानिकारक नहीं बतलाया. दुनिया भर की प्रयोगशालाओं एवं शोधशालाओं में सन् 1920 से 2004 तक किये गये शोध कार्यों के नतीजे भी खेसारी दाल से लेथारिज्म रोग होने की ठोस पुष्टि नहीं करते हैं.
आश्चर्य इस बात का होता है कि सलाह का वैज्ञानिक एवं वैधानिक आधार नहीं होने के बाद भी स्वास्थ्य विभाग खेसारी दाल पर प्रतिबन्ध लगाने के लिये राज्य सरकारों को क्यों विवश करता रहा? दाल को जहरीली बतलाने का प्रपंच किसके बहकावे में एवं किसके फायदे के लिये किया गया, यह जानने की कोशिश होनी चाहिए.
खेसारी दाल की खेती… सबके लिये लाभप्रद
खेसारी दाल सब दालों से ज्यादा पौष्टिक, सुरक्षित एवं कम कीमत पर मिलने वाली एकमात्र दाल है. दुनिया के अनेक राष्ट्रों में इसकी खेती एवं इसका उपयोग प्राचीनकाल से किया जाता रहा है. खेसारी दाल का वनस्पति शास्त्र का नाम लेथाइरस सेटाइवस एवं अंग्रेजी का नाम ग्रास पी, मराठी का लाख-लाखोड़ी, हिन्दी, असमी, बंगला, बिहारी नाम खेसारी-खेसाड़ा है. पूर्वी उत्तर प्रदेश में इसे लतरी कहते हैं. खेसारी दाल पर प्रतिबन्ध लगा कर इसे कलंकित करने के पूर्व देश दालों का आयात नहीं करता था. सम्पूर्ण देश के नागरिक इसका उपयोग आहार में करके स्वस्थ रहते थे. किसान इसकी खेती सबसे ज्यादा क्षेत्रफल में करके सुखी एवं संपन्न होकर जीवन निर्वाह करता था. छोटे किसान जिनकी खेती वर्षा पर निर्भर करती थी, उनके लिए इसकी खेती वरदान जैसी थी.
खेसारी दाल पर प्रतिबन्ध लगाने की सलाह केन्द्र सरकार वापस ले
महाराष्ट्र राज्य सरकार ने किसानों एवं उपभोक्ताओं के विचारों को जाने बगैर दिनांक 15 नवंबर 1961 को प्रतिबन्ध लगाने की सूचना जारी की थी. दिनांक 20 नवंबर 1961 अर्थात मात्र पांच दिन के बाद केन्द्र सरकार की सलाह के अनुरूप अन्न व अपरिमिश्रण कानून के तहत अध्यादेश जारी कर दिया. खेसारी दाल की बिक्री एवं संग्रह पर प्रतिबन्ध लगाने वाला देश का पहला राज्य बनकर महाराष्ट्र ने वाहवाही लूटी. जबकि संसार में इस पर किसी भी देश में प्रतिबंध नहीं था. मात्रा की दृष्टि से महाराष्ट्र देश में खेसारी दाल पैदा करने वाला चौथा सबसे बड़ा राज्य था.
महाराष्ट्र की देखादेखी उड़ीसा ने 1963 में, आन्ध्रप्रदेश ने 1964 में, आसाम ने 1966 में, उत्तरप्रदेश ने 1975 में, कर्नाटक ने 1984 में, मध्यप्रदेश ने 2000 में, बिहार ने 2003 में और झारखंड ने 2004 में इस दाल पर प्रतिबन्ध लगा दिया. देश में सन् 1970-71 में जहां खेसारी दाल का उत्पादन 8.425 लाख टन था वो 2005-06 में घट करके 3.458 लाख टन रह गया. इस बीच अन्य दालों का उत्पादन मांग के अनुरूप नहीं बढ़ा. इससे दालों की कमी हुई एवं कीमतें आकाश को छूने लगीं. प्रतिबन्ध लगाने की सलाह बिक्री एवं संग्रह पर ही दी गयी थी. खेती करने एवं सेवन करने पर नहीं. इसका मतलब आप खा सकते हैं परन्तु बाजार में बेच नहीं सकते. गांवों के बाजार में खुले-आम यह दाल बेची जाती थी. अभी भी इस दाल को भ्रष्ट अधिकारियों एवं लोभी व्यापारियों की मदद से किसान कम दाम पर बेचते हैं. स्वास्थ्य विभाग ने किसी भी राज्य में प्रतिबन्ध लगाने की जानकारी प्रचार माध्यम से नहीं दी. इसका भी आज तक खुलासा नहीं हुआ, जो अपने आप में आश्यर्च है.
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद में हुए शोध कार्यों एव रिपोर्टो के आधार पर एकेडमी आंफ न्यूट्रीशन इम्प्रुवमेन्ट से आमने-सामने बैठकर वैज्ञानिक स्तर पर चर्चा करने को 20 साल के (1989 से 2005) संघर्षकाल में तैयार नहीं हुई. हमारी ओर से दिनांक 28.04.1993 को घोषणा की गयी थी कि यदि कोई खेसारी दाल को हानिकारक सिद्ध कर दे तो उसे एक लाख रूपये का पुरस्कार दिया जाएगा. अभी तक इस राशि को स्वीकार करने के लिये कोई आगे नहीं आया है. एकेडमी ने खेसारी दाल के उपयोग की सच्चाई को सामने लाने एवं देश को दालों के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के लिये राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का मार्ग सन् 1989 से अपनाया हुआ है. विदेशी षडयंत्रकारियों के इशारों पर काम करने वाले हमारे कुछ भारतीय वैज्ञानिक लगातार ऐकेडमी का विरोध करते रहे हैं. उन्होंने अपने पद का लाभ उठाकर शोध के नतीजों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया और सरकारों को भयभीत करने एवं गठित कमेटियों को गुमराह करने में लगे रहे. इस सबके बीच एकेडमी ने नेताओं और अधिकारियों को समझाने के लिये ठोस सबूतों के साथ अपने प्रयास चालू रखे. हमने केन्द्र व राज्य सरकार द्वारा बनाई गई अलग-अलग समितियों के सामने अपने दावों को अकाटय प्रमाणों के साथ प्रस्तुत किया.
महाराष्ट्र सरकार को जब उपरोक्त मामला तथ्यों के साथ समझ में आ गया तब राज्य के मंत्रिमंडल ने एकमत से देवतले समिति 2003 की सिफारिशों के अनुरूप इस दाल पर लगा प्रतिबन्ध हटाने का निर्णय दिनांक 30 जून 2004 को किया. राज्य सरकार ने यह भी स्वीकार किया कि खेसारी दाल का उपयोग आहार में लाभप्रद है तथा बिक्री पर लगाया गया प्रतिबन्ध किसानों के लिए आर्थिक व सामाजिक दृष्टि से नुकसानदायक सिद्ध हुआ है. इस प्रकार महाराष्ट्र सरकार ने खेसारी दाल व इससे बने पदार्थों के संग्रह और उनकी खुली बिक्री की अनुमति दे दी है.
अब प्रयास यह होना चाहिए कि देश में खेसारी का उत्पादन पूर्व की तरह अधिक से अधिक क्षेत्रफल एवं मात्रा में हो. देश की समस्त जनता आहार में इसका उपयोग अन्य दालों की तरह करके स्वस्थ एवं निरोगी बने. खेसारी दाल में अमीनोएसिड, होमोआरजनीन, नोन प्रोटिनएमीनोएसीड (बी.ओ.ए.ए./ओ.डी.ए.पी.), नाईट्रस आक्साइड इत्यादि पाये जाते हैं. ये तत्व रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के साथ मधुमेह, हृदयरोग एवं कैन्सर जैसी बीमारियों से रक्षा करने में भी मदद करते हैं. इन बातों को देखते हुए पाठयक्रम में युवा पीढ़ी को इसका उपयोग अन्य दालों की तरह नि:संकोच होकर करने हेतु शिक्षा दी जानी चाहिए. इससे देश दालों के क्षेत्र में पुन: आत्मनिर्भर बनेगा एवं देश का किसान सुखी और संपन्न हो सकेगा.
संपर्क :
अध्यक्ष, एकेडमी आफ न्युट्रीशन इम्प्रुव्हमेन्ट,
सोयामिल्क काम्पलेक्स, सीताबर्ड़ी, नागपुर-12
QUESTION DETAILS GOVERNMENT OF INDIA MINISTRY OF AGRICULTURE DEPARTMENT OF AGRICULTURE AND COOPERATION RAJYA SABHA UNSTARRED QUESTION NO 3393 TO BE ANSWERED ON 25.04.2008 NEED TO REVOKE THE BAN ON LAKHODI DAL . |
3393. SHRI SANJAY RAUT |
Will the Minister of AGRICULTURE be pleased to state:-
(a) whether the Government of Maharashtra has requested for revoking the ban on lakhodi dal by codnucting proper tests on the effects of consumption of lakhodi dal (Lathyrus sativus) through Hyderabad- based National Institute for Nutrition (NIN);
(b) if so, Government`s response thereto indicating by when the reports from NIN is expected;
(c) whether it is a fact that there are large quantity cultivation and consumption of lakhodi dal is happening in various parts of the country;
(d)if so, the details thereof;
(e) whether it is also a fact that there will be no need of import of pulses if ban is revoked and allowed to bulk cultivation, particularly in Maharashtra; and
(f) if so, Government`s response thereto?
ANSWER
MINISTER OF STATE IN THE MINISTRY OF AGRICULTURE
(SHRI KANTI LAL BHURIA)
(a) & (b): A request has been received in the Ministry of Health and Family Welfare, Government of India from the Government of Maharashtra for lifting ban on the sale of Khesari Dal (Lathyrus sativus) imposed under Prevention of Food Adulteration Act, 1954. National Institute of Nutrition, Hyderabad has submitted a proposal for conducting a study using goats as animal model for approval of the Committee for the Purpose of Control and Supervision on Experiments on Animals (CPCSEA). The study would commence after the receipt of the approval of CPCSEA and may take about 2 years time to complete. However, initial data from the study would be available after 6 months.
(c) & (d): Lakhodi dal is cultivated and consumed in various parts of the country. The area under lakhodi dal (Lathyrus sativus) in the country during 2003-04, 2004-05 and 2005-06 has been as under:-
(c) & (d): Lakhodi dal is cultivated and consumed in various parts of the country. The area under lakhodi dal (Lathyrus sativus) in the country during 2003-04, 2004-05 and 2005-06 has been as under:-
Year Area
(in Lakh ha)
2003-04 7.09
2004-05 6.41
2005-06 6.26
(e) & (f): The production of lakhodi dal in the country particularly in Maharashtra may not be sufficient to bridge the gap between the demand and domestic production of pulses as the current production of lakhodi dal is far less than the total import of pulses. Further, the import of pulses in the country is mainly of tur, lentil, gram and urd.
आज दाल के लिए भूख हड़ताल
पोषण सुधार शांतिलाल कोठारी अकादमी के अध्यक्ष ने राज्य विधानसभा के शीतकालीन सत्र के पहले दिन भूख हड़ताल पर मंच का फैसला किया है. कोठारी 9:00 पर Soyamilk परिसर, Sitabuldi में पोषण अकादमी के हॉल में अपनी हड़ताल शुरू हो जाएगा.
उनकी मांग है कि महाराष्ट्र में की तरह, Lakhodi दाल पर प्रतिबंध भी देश भर में हटाया जा. सरकार को एहसास होना चाहिए कि Lakhodi दाल और अधिक पौष्टिक है के रूप में अन्य दालों की तुलना में.
कोठारी खाने के लिए तैयार और पैक पिछले कुछ वर्षों में हमारे देश से शामिल खाद्य पदार्थों की अवधारणा के disapproves. उन्होंने यह भी 'महुआ' पर प्रतिबंध disregards और कहा, "शराब विभिन्न अन्य चीजों से तैयार किया जा सकता है, वहाँ अंगूर पर कोई प्रतिबंध है तो केवल प्रतिबंधित एक क्यों महुआ चाहिए."
वह पीढ़ी वन उत्पादों, जो भव्य माता पिता की कहानी के रूप में नहीं खो जाना चाहिए लाभ का ज्ञान को संरक्षित करने के लिए कहा. परंपरा पर किया जाना चाहिए, इन वन उत्पादों को स्वस्थ और स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद हैं.
Vineet Narain
Senior journalist who repeatedly
created history in the country by
his bold exposures
Friday, December 3, 2004
दाल हो तो खेसारी
हर जो चीज़ चमकती है उसको सोना नहीं कहते. बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चमक-दमक और प्रचार के पीछे यही सच्चाई छिपी है. कभी बच्चों के लिए पाउडर का दूध बढि़या खुराक है, कह कर मूर्ख बनाते हैं. कभी कहते हें रासायनिक उर्वरक अच्छे हैं. कभी इन्हें खराब बनाते हैं. हम मूर्ख बनकर लुटते रहते हैं. यही किस्सा खेसारी दाल की भी है. देश में मिलने वाले ज्यादातर नमकीन इसी दाल से बनते हैं जो बेसन के बने जैसे लगते हैं पर ज्यादा खस्ता होते हैं.
खेसारी, विज्ञान के अनुसार एक दाल की फसल है परन्तु सामान्य लोगों का सूखा एवं आकाल के समय इसका उपयोग करके असंख्य लोगों ने अपना अच्छा स्वास्थ्य बनाए रखा एवं प्राणों की रक्षा भी की है. अन्य प्रचलित दालों से इसमें सबसे ज्यादा मात्रा में अर्थात 32 से 34 प्रतिशत आसानी से पचने वाला उच्च कोटि के प्रोटीन होते हैं तथा सबसे कम कीमत पर मिलने तथा स्वादिष्ट एवं कुरकुरे पदार्थोंं के बनने से यह बहुसंख्यक लोगों की पहली पसंद की दाल है. दुधारू जानवरों का दूध एवं बैलों की शारीरिक स्फूर्ति एवं कार्यक्षमता को बढ़ाने तथा कम कीमत में मिलने वाला उत्तम क्वालिटी का राशन एवं चारे का काम करती है. जमीन में नाइट्रोजन जमा कर उर्वरा शक्ति को बढ़ाने में मदद करने से धान का उत्पादन भी ज्यादा होता है.
खेसारी के पौष्टिक एवं औद्योगिक गुण, शून्य उत्पादन खर्च व आकाल के समय में भी खेतों में लहराते हुए ज्यादा उत्पादन देने तथा संकट के समय खाद्यानों की तरह मनुष्यों एवं जानवरों के प्राणों की रक्षा करने की क्षमता से प्रभावित होकर, ’’फसलों पर आधिपत्य जमाने वाले विकसित राष्ट्रों के वैज्ञानिकों’’ ने सूखे एवं आकाल के समय पर अन्य कारणों से इक्का-दुक्का पाए जाने वाले लेथारिज्म के रोगियों को मनगढ़ंत तरीकों से इसके रोगी बताकर उपयोगिता के प्रति गुमराह किया एवं लक्ष्य प्राप्त नहीं होने से आज भी कर रहे हैं. केन्द्रीय स्वास्थ्य विभाग ने भी बिना किसी वैज्ञानिक अध्ययन, शोधकार्यों के नतीजों अथवा लोगों के अनुभवों को देख, 1961 में राज्य सरकारों को बिक्री पर प्रतिबंध लगाने की सलाह दे दी. ज्यादा उत्पादन करने वाले राज्यों जैसे मध्य प्रदेश, बिहार, बंगाल इत्यादि ने अपने किसानों के अनुभवों के आधार पर प्रतिबंध लगाने से इन्कार कर दिया.
खेसारी दाल की बिक्री पर प्रतिंबध लगा देने तथा पाठ्य पुस्तकों में जहरीली दाल बताकर पढ़ाने से संपूर्ण देश की युवा पीढ़ी एवं शिक्षित नागरिक उपयोग के प्रति गुमराह हो गए. अन्य दालों का उत्पादन मांग के अनुरूप नहीं होने से देश दालों का आयात करने के लिए बाध्य हुआ. किसान लाभदायक फसल का उत्पादन नहीं कर पाने से आर्थिक रूप से पिछड़ा एवं आत्महत्या करने के लिए मजबूर हुआ. सामान्य जनता में खेसारी जैसी कम कीमत (क्रय शक्ति) पर आसानी से पचने एवं ज्यादा प्रोटीन वाली दाल के नहीं मिलने से कुपोषण बढ़ा एवं माताओं, बच्चों एवं युवाओं में तो उसने उग्र रूप धारण कर लिया. इस तरह राज्य सरकारों द्वारा बंदी लगाने से आम जनता एवं किसानों में असंतोष पनपा एवं फैला.
खेसारी दाल पर आधिपत्य जमाने वाले अमेरिका एवं इंग्लैन्ड के वैज्ञानिकों तथा वहां की सामाजिक संगठनों ने 1984 में ‘‘थर्ड वर्लड मेडिकल रिसर्च फाऊंडेशन’’ की स्थापना न्यूयार्क एवं लन्दन में कर के ‘‘लाईक माईन्डेड वैज्ञानिकों’’ की गोष्ठियों का आयोजन करने लगे. इन गोष्ठियों में भारत, बंगलादेश, नेपाल, पाकिस्तान, इन्डोनेशिया, इथोपिया, इत्यादि राष्ट्रों के साथ कनाडा, आस्ट्रेलिया, फ्रांस, स्पेन इत्यादि राष्ट्रों के वैज्ञानिकों को आमंत्रित किया जाने लगा. गोष्ठियों में सबने यह मान लिय कि खेसारी के टाक्सीन रहीत अथवा कम टाक्सीन के बीजों से उत्पादित खेसारी स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित हैं तथा एशिया एवं अफ्रीका के लोगों के लिए यह उत्तम खाद्यान तथा पशुओं के उत्तम चारे की फसल है.
कम टाॅक्सीन के बीजों के खोज कार्यों को गति देने की दृष्टि से थर्ड वर्लड मेडिकल रिसर्च फाउंडेशन ने 1985 में ‘‘इन्टरनेशनल नेटवर्क फार दी इम्पु्रव्हमेंट आॅफ लेथाइज्म सेटाईवस एवं इरेडीकेशन आफ लेथारिज्म’’ नामक संस्थ की न्यूयार्क में स्थापना की कृषि अनुसंधान संस्थाओं एवं विश्वविद्यालयों में कम टाक्सीन के बीजों को खोजने का शोध कार्य प्रारंभ करने वालों को आथर्क मदद दी. सबसे आश्चर्य की बात तो यह है की इन ‘‘लाईक माइन्डेड वैज्ञानिकों’’ ने कम टाक्सीन के मतलब को समझने एवं बीजों के गुणों की आर्थात उससे उत्पादित होने वाली दाल के गुणों की पहचान करने के पूर्व ही स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित एवं लाभदायक बताया, इससे शोध कार्यों को प्राथमिकता के उद्देश्यों के प्रति शंका निर्माण होना स्वभाविक है. खेसारी दाल में बी.ओ.ए.ए. नामक टाक्सीन होता है तथा उससे ही लेथारिज्म रोग होता है, यह बात सिद्ध हो जाने के पूर्व ही दुष्प्रचार प्रारंभ कर देना एवं प्रतिबंध लगा देना गलत है. खेसारी दाल में कितना टाॅक्सीन होने पर तथा उस दाल का कितनी मात्रा में कितने दिन तक उपयोग करने से लेथारिज्म रोग होता है, यह तथ्य वैज्ञानिक धरातल पर आज तक सिद्ध नहीं हुआ है. इसी तरह ‘‘कम टाक्सीन वाले बीजों’’ के उत्पादन की आवश्यकता को प्रतिपादित करना एवं जन्म के पूर्व गुणों बाबत् शोर मचाकर गुमराह करने का यह दूसरा उदाहारण है. इसे विज्ञान की खोज समाज के उत्थान के लिए बतलाना गलत है. टाक्सीन की मात्रा कितनी होने पर बीज कम टाक्सीन का कहलाएगा, यह अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है. किसी भी देश में अथवा प्रान्त में कम टाक्सीन के बीजों से खेसारी का उत्पादन एवं उपयोग नहीं हो रहा है. लम्बे समय तक खेतों में उत्पादन एवं खाद्यानों अथवा पशु खाद्य के रूप में उपयोग करने के पूर्व ही स्वास्थ्य के लिए लाभदायक, खाने से लेथारिज्म रोग नहीं होगा एवं किसानों के लिए लाभदायक मतलब उत्पादन शुल्क, अकाल व सुखे के समय भी शून्य होने का दावा व्यापारिक विज्ञान ही कर सकता है, विज्ञान नहीं. क्योंकि ऐसा दावा करना सरासर धोखा एवं छल है. सामान्यतः बीजों की खोज करने के बाद 20 से 30 साल के उत्पादन एवं उपयोग के अनुभवों के आधार पर गुणों की व्याख्या करना सही माना जाता है.
संयोग की बात ही कही जाएगी कि जब अमेरिका एवं इंग्लैंड के वैज्ञानिक खेसारी फसल पर अपना आधिपत्य जमाने के उद्देश्य से देश के ‘‘लाईक माईंडेड’’ आयुर्विज्ञान एवं कृषि क्षेत्र के वैज्ञानिकों से संबंध स्थापित कर रहे थे उस समय अकेडमी आफ न्यूट्रीशन इम्प्रुव्हमेंट, नागपुर के वैज्ञानिक अपने अध्ययनों से जनता के बीच सिद्ध कर रहे थे कि खेसारी दाल सब दालों से ज्यादा पौष्टिक, सस्ती एवं छोटे किसानों (जिनकी खेती वर्षा पर ही निर्भर करती है) के लिए सबसे लाभ दायक फसल है. आकाल व सूखे के समय ज्यादा उत्पादन देने से मनुष्य जाति का उत्तम खाद्यान तथा पशुओं का उत्तम चारे का काम करके इसने उनके उत्तम स्वास्थ्य एवं कार्यक्षमता को बनाए रखा तथा प्राणों की रक्षा भी की है. अकेडमी ने अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों द्वारा कम टाक्सीन के बीजों से उत्पादित होने वाली दाल के उपयोग को उसके जन्म के पूर्व ही स्वास्थ्य की दृष्टि से सुरक्षित बतलाने एवं दुष्प्रचार को षड़यंत्र का भाग बताकर किसानों को बचने के लिए आगाह किया.
अकेडमी की मांग को वैज्ञानिक धरातल पर सही पाने तथा राज्य एवं केन्द्र सरकार द्वारा गठित कमेटियों के सामने लेथारिज्म रोग का एक भी रोगी अथवा खेसारी एवं लेथारिज्म रोग में संबंध स्थाापित करने वाला शोध पत्र सामने नहीं आने के बाद भी, आधिपत्य जमाने वाले अंर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों के दबाव के कारण हमारे वैज्ञानिक ऊंचे पदों पर बैठे वैज्ञानिकों, राजनेताओं एवं जनप्रतिनिधियों को बनावटी अथवा जल्दबाजी में किए गए सर्वेक्षणों के तथाकथित नतीजों से भविष्य में, लेथारिज्म रोग हो जाने पर उनकी ही बदनामी होगी का डर तथा अधिक शोध की आवश्यकता को अपनी रोज़ी-रोटी के लिए प्रतिपादित कर निर्णय लेने से रोक देते थे.
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर की गई यह स्वीकारोक्ति इस बात की पुष्टि करती है कि अकेडमी ने 18 सालों के अपने संघर्ष और अध्ययन से उस षंड़यंत्र को पूरी तरह विफल कर दिया जिसमें इस बहुउपयोगी खाद्यान की पारंपरिक फसल को समाप्त कर अपना बीज-फसल थोपने का प्रयास किया जा रहा था. इस अंतर्राष्ट्रीय संगठन को यह स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा कि खेसारी एक अच्छा खाद्यान तथा पशु-खाद्य है. अब जब महाराष्ट्र में प्रतिबंध समाप्ति का निर्णय किया जा चुका है तो एक बार फिर अपना बीज फसल थोपने के प्रयास में यह वैज्ञानिक समूह सम्मेलन का आयोजन कर रहा है, वहां तीसरी दुनिया के उनके पक्षधर वैज्ञानिकों को अपने ओर से खर्च देकर आमंत्रित किया गया है. इन षड़यंत्रकारियों को यह पता है कि महाराष्ट्र में लगे प्रतिबंध को हटा देने से किसान खेती करने एवं बाजार में बेचने के लिए स्वतंत्र हो जाएंगे. इससे अकेडमी के प्रयास की सफलता पर मोहर लग जाएगी और वे अपने बीजों को तीसरी दुनिया के किसानों पर थोपने में सफल नहीं हो पाएंगे. साथ ही इस दाल के संबंध में अनेक वर्षों से जो हो-हल्ला मचा रखा था तथा डर पैदा किया गया था, उसकी पोल भी खुल जाएगी.
डॉ कोठारी का 'दाल सत्याग्रह'
अंग्रेजों द्वारा नमक पर कर लगाए जाने के विरोध में राष्ट्रपति महात्मा गांधी ने दांडी यात्रा कर 'सत्याग्रह' किया था. उस दौरान महात्मा गांधीजी के साथ हजारों लोगों का हूजूम उमड़ गड़ा था किन्तु इस दौर में गांधीजी को प्रेरणास्रोत मानकर उनकी विचारधारा पर पिछले कई सालों से संघर्षरत एक आधुनिक गांधी सरकार से बात मनवाने के लिए अन्न त्याग कर प्राण त्यागने की जिद पर अड़े हैं लेकिन अभी तक उनके आस-पास कोई इकट्ठा नहीं हुआ है.
यह गांधी कोई और नहीं नागपुर के जानेमाने पोषाहार विशेषज्ञ व नागपुर की एकेडमी ऑफ न्यूट्रिशीयन इम्प्रूवमेंट के अध्यक्ष डॉ. शांतिलाल कोठारी हैं. श्री कोठारी चाहते हैं कि देश में खेसारी (लाखोड़ी) दाल का उत्पादन शुरू हो. इसके लिए वे अकेले ही आंदोलनरत हैं. लाखोड़ी दाल पर केन्द्र सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने 2 फरवरी 1961 के राज्यों एवं केन्द्र शासित प्रदेशों को अपने क्षेत्रों में खाद्य अपरिमिश्रण कानून 1955 की धारा 44-ए के तहत वैज्ञानिक आधार न होते हुए भी इसकी बिक्री एवं संग्रह पर प्रतिबंध लगाने की सलाह देकर दाल के उत्पादन पर रोक लगा दिया था.
करीब दो दशक से डॉ. शांतिलाल कोठारी देश के सभी राज्यों में इस दाल की बिक्री पर लगे प्रतिबंध को हटाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं. इस दाल की बिक्री व संग्रह पर लगा प्रतिबंधन महाराष्ट्र, छतीसगढ़ और पश्चिम बंगाल सरकार हआ चुकी है. डॉ. कोठारी का कहना है दाल के भाव आसमान छू रहे हैं. आम और खास लोग भी दाल की महंगाई से त्रस्त हैं. लाखोड़ी दाल का उत्पादन मूल्य बेहद कम होता है. इसलिए देश के अन्य राज्यों में भी इसकी बिक्री व संग्रह की अनुमति मिले. इसके लिए डॉ. कोठारी गुरूवार को अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठ गए हैं. उनका कहना है कि उनकी मांग पूरी नहीं हुई तो वह अपने प्राण इस आंदोलन की खातिर त्याग देंगे.
इससे पहले भी डा. कोठारी सरकार के खिलाफ सत्याग्रह कर चुके हैं. पिछली बार 60 दिनों का अन्न त्याग सत्याग्रह आंदोलन के दौरान उनकी ओपन हार्ट सर्जरी भी की गई थी. उन्हें डॉक्टरों ने हमेशा समय पर दवाइयां लेने का निर्देश दिया हैं. इसके बाद भी डॉ. कोठारी ने गुरूवार से आंदोलन शुरू कर दी और उन दवाओं को खाना छोड़ दिया है जिसे खाने की सलाह डाक्टर ने दी है.
डा.कोठारी का कहना है कि पिछली बार 2 माह के अन्न त्याग सत्याग्रह से सरकार को जगाने का प्रयास किया था. यह महात्मा गांधी की राह है. उनका कहना है कि देश मंे आम आदमी के लिए प्रोटीन के एक व्यापक स्त्रोत रही दालों की भारी कमी एवं उंची कीमतों की समस्या को किसानों की मदद से हल करने के आसान उपाय पर शासनकर्ताओं की बेरूखी, बेचैन करने वाली है. राज्य सरकारें खेसारी दाल को लेकर षडयंत्र रच रही हैं. दालों की कमी आज पूरे देश की समस्या है. नेता उसकी चिंता, चर्चा एवं उपाय करते नहीं थक रहे हैं. किन्तु उसके हल का मार्ग बताने वाले एक भारतीय वैज्ञानिक द्वारा प्राणों की बाजी लगा देने के बावजूद उसकी बातों को नजर अंदाज किया जा रहा है. इससे साबित होता है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों को नकली हानिकारक तुअर दाल को बेचने एवं धन कमाने का मौका देने में हर सरकार कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती है.
डॉ. कोठारी का कहना है कि यह आश्चर्य से कम नहीं है कि खेसारी दाल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नहीं है, इसका वैज्ञानिक प्रमाण हो जाने के बाद महाराष्ट्र सरकार ने वर्ष 2008 में खेसारी दाल पर से प्रतिबन्ध तो जरूर हटा लिया, किन्तु बार-बार आग्रह करने के बावजूद इस दाल के उत्पादन के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किया. इस साल देश में देर से आये मानसून के कारण परेशान एवं पीड़ित किसानों के लिए खेसारी की फसल वरदान है, किन्तु कृषि विभाग किसानों की फसल का उत्पादन बढ़ाने का आव्हान करने का कोई प्रयास नहीं किया जाना, चिंता की बात है.
Nutritionist protests ban on lakhodi dal
By Aparna Pallavi
Shantilal Kothari is fasting to have the ban on the cultivation and sale of lakhodi dal lifted. He maintains that lakhodi is an ideal crop for poor rural communities as it promises high yields, very low input costs and excellent nutritive value Dr Shantilal Kothari, nutritional scientist and head of the Nagpur-based Academy of Nutrition Improvement, has a simple question: Why, when the Maharashtra state cabinet took a decision to lift the ban on lakhodi dal, a local pulse variety widely consumed in many parts of India, three years ago (June 2004) is the government not issuing the requisite GR to implement the decision? Dr Kothari?s fast in protest against this absurd situation entered its 49th day on April 20, 2008, but, except for the usual assurances, the state government still has to respond. This, despite the fact that Dr Kothari, a nationally well-known food and nutrition expert, is over 70 years old and recently underwent major heart surgery.
To support Dr Kothari?s campaign for the ban to be lifted, Shriprakash Pohare, editor of the Marathi daily Deshonnati, and the organisation Amhi Amchya Arogya Sathi in Gadchiroli organised a peaceful civil disobedience event in Nagpur, on April 1. Lakhodi dal was sold openly to the public at the event, as also in Amravati and Akola in Vidarbha on that day. Lakhodi dal (Lathyrus sativus), also known as ?khesari?, ?tikhadi? and ?tiwda? in various parts of north India, is widely grown and consumed all over Maharashtra by the rural poor, notwithstanding a December 1961 ban on its production and sale. Referring to the medical premise on which the ban is based, Dr Kothari, who has done extensive research on the subject, as also other issues like the health impact of iodised salt and the nutritive possibilities of mahua, says: ?Medical texts say that a person may contract lathyrism, a form of paralysis of the legs, if he consumes 400 grams of the dal daily, for three months continuously.?
This, he says, is a very slim premise on which to base a blanket ban, as, under normal circumstances, consumption of such huge quantities of dal is impossible. ?There has been no conclusive evidence regarding a direct link between lakhodi consumption and lathyrism, or even the existence of the said illness, though research in this area has been going on since 1920.? Dr Kothari points out that two studies by the Sengupta Committee in 1992 and by the Mrinalini Pathak study group in 1993 failed to confirm the existence of statistically significant numbers of lathyrism cases among tribal populations that consume the dal regularly; nor did the studies succeed in establishing a clear-cut connection between the disease and lakhodi consumption even in the rare cases found.
Dr Kothari alleges that the dal was banned in accordance with a pre-fabricated international agenda rather than as a result of in-depth and authentic research. The evidence lies, he says, in the ban?s chronology. The central government imposed the ban on February 2, 1961, whereas the report on the health impact of lakhodi was submitted to the Indian Council of Medical Research (ICMR) for review only on October 2 of the same year. The Maharashtra government?s ban came into effect on November 21, 1961, much before ICMR was able to comment on the report.
According to Dr Kothari, the ban on lakhodi dal has badly affected the economy and lives of both rural and urban poor. This dal, he says, is uniquely suited to the requirements of the poor, as it is very easy to cultivate, requiring no inputs or labour, is cheap (Rs 12-15 per kg compared to tur, the most popular pulse in Maharashtra, which currently costs around Rs 38 per kg) and also, according to the National Institute of Nutrition (NIN), Hyderabad, contains the highest amount of protein and other nutrients.
By imposing the ban, Dr Kothari explains, the government is depriving the poor of affordable and nutritious food. Besides, the ban does not serve any real purpose as the dal continues to be cultivated, sold and consumed widely in rural areas, especially in the tribal districts of Chandrapur, Gadchiroli, Gondia and Bhandara. Eateries in urban areas too use lakhodi dal widely as a cheap substitute for tur and channa dals; tur dal besan (powder) and besan products sold in the market are routinely mixed with lakhodi dal (it looks and tastes a lot like tur dal). ?The only effect of the ban has been that traders are able to intimidate farmers into selling it cheap, and then make a killing by using it as an adulteration agent.? Another negative impact of the ban, says Dr Kothari, is that it continues to keep India dependent on expensive imported pulses. ?By banning this dal, which is produced and consumed openly all over Asia, and in large quantities in countries like Bangladesh, Nepal, Ethiopia, Pakistan and even France, the authorities are only reinforcing the World Bank?s agenda of keeping India dependent on the developed world for food imports.? Kothari maintains that if the ban were lifted, many farmers would be motivated to grow lakhodi dal, which offers high yields at very low cost, and India would become self-sufficient in pulse production.
Meanwhile, the various government agencies engage in shifting blame and responsibility. The state government pleads that its resolution is awaiting approval by the central government. Replying to a question in the state assembly on the issue, on March 19, Food and Drugs Administration Minister Baba Siddique said that despite urgent reminders, the NIN had not come up with a report on the health impact of the pulse in question. FDA commissioner Dhanraj Khamatkar echoes this view.
(Aparna Pallavi is an independent journalist based in Nagpur)
InfoChange News & Features, April 2008
www.infochangeindia.org
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