पतंजलि(दिव्य योग-दिव्य लाइफ) आदर्श ग्राम व ग्रामोद्योग, देश को समर्पित


आप मदतकर्ता का विशेष धन्यवाद--1)श्री ठाकुर2)मनोज खरबड़े(सॉफ्टवेयर प्रोग्रामर)3)श्री आंबाड़ारे(बैंक मेनेजर, ब्रम्हपुरी)

Friday, 20 January 2012

समग्र ग्राम सेवा
सच्चा भारत उसके 7 लाख गांवों में बसता है. यदि भारतीय सभ्यता को एक स्थायी विश्व व्यवस्था के निर्माण में अपना पूर-पूरा योगदान करना है तो गांवों में बसने वाली इस विशाल जनसंख्या को फिर से जीना सिखाना होगा.
हरि, 27-4-1947, पृ. 122


आज हमारे गांव जिन तीन बीमारियों के चंगुल में हैं, वे हैं : (1) सामूहिक स्वच्छता का अभाव, (2) अपर्याप्त आहार, (3) जडता. ग्रामवासियों को स्वयं अपने कल्याण में रुचि नहीं है. वे सफाई के आधुनिक तरीकों की खूबियां नहीं देख पाते. वे अपने खेतों को जोतने या अरसे से चले रहे मेहनत के कामों के अलावा कोई और काम करना नहीं चाहते. यह कठिनाइयां वास्तविक और गंभीर हैं. लेकिन हमें इनसे घबराना नहीं चाहिए.
हमें अपने ध्येय में अदम्य आस्था होनी चाहिए. हमें लोगों के साथ धीरज से पेश आना चाहिए. अभी हम स्वयं ही ग्राम-कार्य में नौसिखिये हैं. हमें पुरानी बीमारियों का इलाज करना है. अगर हममें धैर्य और अध्यवसाय होगा तो हम बडी-से-बडी कठिनाइयों को पार कर सकेंगे. हम उन परिचारिकाओं की तरह से हैं जिन्हें अपने रोगियों को इसलिए छोडकर नहीं चले जाना चाहिए कि वे असाध्य रोगों से ग्रस्त हैं .
हरि, 16-5-1936, पृ. 111-112


गांव बहुत लम्बे समय से उन लोगों की उपेक्षा के शिकार रहे हैं जो शिक्षित हैं. शिक्षित लोग शहरों में जा बसे हैं. ग्राम आंदोलन गांवों के साथ स्वस्थ संपर्क स्थापित करने का एक प्रयास है जिसके लिए उन लोगों को गांवों में जाकर बसने के लिए प्रेरित करना है जिनमें सेवा की उत्कट भावना है और जो ग्रामवासियों की सेवा में आत्माभिव्यक्ति का सुख अनुभव करते हैं....
जो लोग सेवा की भावना से गांवों में जाकर बस गए हैं, वे अपने सामने आने वाली कठिनाइयों से घबराये नहीं हैं. वे वहां जाने से पहले ही जानते थे कि उन्हें ग्रामीण भाइयों की रुखाई सहित अनेक कठिनाइयों का सामना करना पडेगा. इसलिए गांवों की सेवा वही लोग कर सकेंगे जिन्हें अपने में और अपने ध्येय में आस्था है.
कार्यकर्ता
लोगों के बीच रहकर सच्चा जीवन बिताना अपने आप में एक पदार्थ पाठ है. इसका अपने आसपास के वातावरण पर प्रभाव अवश्य पडना चाहिए. कठिनाई शायद यह है कि हमारे युवाजन सेवा की भावना के बगैर ही केवल जीविकोपार्जन के लिए गांवों में गए हैं.
मैं मानता हूं कि जो लोग धनोपार्जन के विचार से गांवों में जाते हैं, उनके लिए वहां कोई आकर्षण नहीं है. यदि सेवा की प्रेरणा नहीं है तो ग्रामजीवन नवीनता की अनुभूति समाप्त होते ही नीरस लगने लगेगा. गांवों में जाने वाले युवकों को थोडी-सी कठिनाई आते ही अपने ध्येय को छोड नहीं देना चाहिए. धैर्यपूर्वक प्रयास करने से सिद्ध हो जाएगा कि गांवों के लोग शहर के लोगों से ज्यादा भिन्न नहीं हैं और उन पर आपके प्रेम और उनकी समस्याओं की ओर ध्यान दिए जाने का अनुकूल प्रभाव अवश्य पडेगा.
यह निश्चित रूप से सही है कि गांवों में आपको देश के महान नेताओं से संपर्क के अवसर नहीं मिल पाएंगे. लेकिन ज्यों-ज्यों ग्राम मानसिकता में वृद्धि होगी त्यों-त्यों नेताओं को भी गांवों का दौरा करना आवश्यक प्रतीत होने लगेगा और वे गांवों के अधिकाधिक संपर्क में आएंगे. इसके अलावा, अगर आपको महान पुरुषों का सत्संग चाहिए तो आप चैतन्य, रामकश्ष्ण, तुलसीदास, कबीर, नानक, दादू, तुकाराम, तिरुवल्लुवर आदि अनेक जाने-माने महापुरुषों की रचनाओं को पढकर उसका सुख प्राप्त कर सकते हैं. इनके अलावा और भी अनेक संत हुए हैं जो इन्हम् के समान प्रसिद्ध और पवित्र आत्मा थे.
साहित्य
कठिनाई अपने मन को स्थायी मूल्यों को ग्रहण करने के अनुकूल बनाने की है. यदि हमें राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और वैज्ञानिक-क्षेत्रों से संबंधित आधुनिक विचारों का अध्ययन करना है तो हमारी उत्सुकता को शांत करने के लिए साहित्य उपलब्ध है. लेकिन मैं मानता हूं कि जितनी सरलता से धार्मिक साहित्य उपलब्ध है, उतनी सरलता से आधुनिक साहित्य उपलब्ध नहीं है. संतों ने आम जनता के लिए लिखा और उपदेश किया था. अभी आधुनिक विचारों को आम जनता के समझने योग्य भाषा में अनुदित करने की परंपरा ठीक से शुरू नहीं हुई है. लेकिन समय के साथ-साथ इसमें प्रगति अवश्य होगी.
अतः मैं युवकों को परामर्श दूंगा कि वे हिम्मत न हारें और अपने प्रयास जारी रखें तथा अपनी उपस्थिति से गांवों को रहने योग्य और आकर्षक बनाएं. यह काम वे तभी कर सकते हैं जबकि वे गांवों की सेवा उस रूप में करें जिस रूप में वह ग्रामवासियों के लिए स्वीकार्य हो. इसकी शुरुआत हर आदमी अपने परिश्रम के द्वारा गांवों की सफाई करके और अपनी क्षमता के अनुसार गांवों में निरक्षरता का निवारण करके कर सकता है. यदि कार्यकर्ताओं का रहन-सहन साफ-सुथरा, व्यवस्थित और परिश्रमपूर्ण होगा तो इसमें संदेह नहीं है कि वे जिन गांवों में काम कर रहे होंगे वहां इसका प्रभाव अवश्य फैलेगा.
हरि, 20-2-1937, पृ. 16
समग्र ग्राम-सेवा
समग्र ग्राम-सेवा का अपने गांव के प्रत्येक निवासी से परिचय होना चाहिए और जितना बन पडे उतनी सेवा ग्रामवासियों की करनी चाहिए. इसका मतलब यह नहीं है कि वह सारा काम अकेले ही कर सकता है. वह ग्रामवासियों को यह बताएगा कि वे किस प्रकार अपनी सहायता स्वयं कर सकते है और उन्हें जो सहायता एवं सामग्री की आवश्यकता होगी, उसे उनके लिए उपलब्ध कराएगा. वह अपने सहायकों को भी प्रशिक्षित करेगा. वह ग्रामवासियों के मन को इस तरह जीतने का प्रयास करेगा कि वे उसके पास परामर्श के लिए आने लगेंगे.
मान लीजिए मैं एक कोल्हू लेकर किसी गांव में जाकर बस जाता हूं तो मैं 15-20 रुपये माहकर कमाने वाला कोई साधारण तेली कहम् हो.ंगा. मैं तो एक महात्मा तेली हो.ंगा. मैंने यहां "महात्मा" शब्द का प्रयोग विनोद के लिए किया है; मेरा असली आशय तो है कि तेली के रूप में मैं ग्रामवासियों के अनुकरण के लिए एक आदर्श बन जाउंगा. मैं ऐसा तेली होउंगा जिसे गीता और कुरान की जानकारी है. मैं इतना पढा-लिखा होउंगा कि उनके बच्चों को शिक्षा दे सकूं. यह बात और है कि मुझे इसके लिए शायद समय न मिले. तब गांव वाले मेरे पास आएंगे और मुझसे कहेंगे, "मेहरबानी करके हमारे बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था कर दीजिए." तब मैं उनसे कहूंगा, "मैं आपके लिए एक शिक्षक की व्यवस्था कर सकता हूं, पर आपको उसका खर्च बर्दाश्त करना होगा." और वे खुशी-खुशी इसके लिए तैयार हो जाएंगे.
मैं उन्हें कताई सिखा.ंगा और जब वे मुझसे किसी बुनकर को लाने के लिए आग्रह करेंगे तो मैं उन्हें उसी प्रकार बुनकर लाकर दूंगाजिस प्रकार मैंने उन्हें शिक्षक लाकर दिया है. यह बुनकर उन्हें सिखायेगा कि वे अपना कपडा किस प्रकार बुन सकते है. मैं उन्हें स्वास्थ्य-रक्षा और सफाई के महत्व के प्रति जागरूक करूंगा और जब वे मुझसे कहेंगे कि मैं उनके लिए एक मेहतर की व्यवस्था कर दूं तो मैं कहूंगा, "मैं आपका मेहतर हूं और आपको इस काम की शिक्षा मैं दूंगा."
समग्र ग्राम-सेवा की मेरी धारणा यह है. आप कह सकते हैं कि इस जमाने में मुझे ऐसा तेली कहम् नहीं मिलेगा जैसा कि मैंने .पर वर्णन किया है. मेरा उनर होगा कि यदि ऐसा है तो हम इस जमाने में अपने गांवों के सुधार की आशा नहीं कर सकते... आखिर, जो आदमी तेल-मिल चलाता है वह तेली तो होता ही है. उसके पास पैसा तो होता है, पर उसकी शिक्षा उसके पैसे में निहित नहीं होती. उसकी सच्ची शिक्षा उसके ज्ञान में निहित होती है. सच्चा ज्ञान मनुष्य को नैतिक प्रतिष्ठा और नैतिक शक्ति देता है. ऐसे व्यक्ति से हर कोई परामर्श लेना चाहता हैं.
हरि, 17-3-1946, पृ. 42
आर्थिक सर्वेक्षण
सभी गांवों का सर्वेक्षण कराया जाएगा और उन चीजों की सूची तैयार कराई जाएगी जो कम से कम या किसी तरह की सहायता के बिना स्थानीय रूप से तैयार की जा सकती हैं और जो या तो गांवों के ही इस्तेमाल में आ जाएंगी या जिन्हें बाहर बेचा जा सकेगा. उदाहरण के लिए, कोल्हू से पेरा गया तेल और खली, कोल्हू से पेरा गया जलाने का तेल, हाथ से कुटे चावल, ताड गुड, शहद, खिलौने, चटाइयां, हाथ से बना कागज, साबुन आदि. इस प्रकार यदि पर्याप्त ध्यान दिया जाए तो ऐसे गांवों में जो निष्प्राण हो चुके हैं या निष्प्राण होने की प्रव्या में हैं, नवजीवन का संचार हो सकेगा तथा उनकी स्वयं अपने और भारत के शहरों और कस्बों के इस्तेमाल के लिए आवश्यकता की अधिकांश वस्तुओं के निर्माण की अनंत संभावनाओं का पता चल सकेगा.
हरि, 28-4-1946, पृ. 122
कला और शिल्प
ग्रामवासियों को अपने कौशल में इतनी वृद्धि कर लेनी चाहिए कि उनके द्वारा तैयार की गई चीजें बाहर जाते ही हाथोंगहाथ बिक जाएं. जब हमारे गांवों का पूर्ण विकास हो जाएगा तो वहां उंचे दर्जे के कौशल और कलात्मक प्रतिभा वाले लोगों की कमी नहीं रहेगी. तब गांवों के अपने कवि भी होंगे, कलाकार होंगे, वास्तुशिल्पी होंगे, भाषाविद् होंगे और अनुसंधानकर्ता भी होंगे. संक्षेप में, जीवन में जो कुछ भी प्राप्य है, वह सब गांवों में उपलब्ध होगा.
आज हमारे गांव गोबर के ढेर मात्र हैं. कल वे सुंदरगसुंदर वाटिकाओं का रूप ले लेंगे जिनमें इतनी प्रखर बुद्धि के लोग निवास करेंगे जिन्हें न कोई धोखा दे सकेगा और न उनका शोषण कर सकेगा. उपर बताई गई पद्धति के अनुसार गांवों के पुनर्निर्माण का कार्य तत्कालश्शुरू कर देना चाहिएकृ गांवों का पुनर्निर्माण अस्थायी नहीं, स्थायी आधार पर किया जाना चाहिए.
हरि, 10-11-1946, पृ. 394
आर्थिक पुनर्गठन
पूर्ण स्वदेशी से संबंधित अपने लेखन में मैंने बताया है कि किस प्रकार इसके कुछ पहलुओं को तुंत हाथ में लिया जा सकता है जिससे लाखों भूखे लोगों को आर्थिक दृष्टि से और स्वास्थ्य-रक्षा की दृष्टि से लाभ पहुंच सकता है. देश के धनी-से-धनी व्यक्ति इस लाभ में भागीदार हो सकते हैं. मान लीजिए, यदि पुरानी पद्धति के अनुसार गांवों में चावल की हथकुटाई हो सके तो इससे मिलने वाली मजदूरी उन बहनों की जेब में जाएगी जो चावल कूटने का काम करेंगी और चावल खाने वाले लाखों लोगों को पालिश किए हुए चावल से प्राप्त होने वाली शुद्ध माडी के स्थान पर हाथ से कुटे चावल से मिलने वाले पोषक तत्वों का लाभ प्राप्त हो सकेगा.
मनुष्य का लोभ जो हमें लोगों के स्वास्थ्य या उनकी संपनि की कोई परवाह ही नहीं करने देता, चावल पैदा करने वाले क्षेत्रों में सर्वत्र फैले भद्दे चावल-मिलों के लिए उनरदायी है. यदि लोकमत-शक्तिशाली बन जाए तो वह बगैर पालिश किए चावल के उपयोग पर जोर देकर सब चावल-मिलों को बंद करा सकता है और चावल-मिलों के मालिकों से अपील कर सकता है कि वे ऐसी चीज का उत्पादन बंद कर दें जिससे समूचे राष्टं के स्वास्थ्य की हानि होती है और गरीबों को आजीविका के एक निर्दोष साधन से वंचित होना पडता है.
हरि, 26-10-1934, पृ. 292


...मेरा कहना तो यह है कि अगर गांव नष्ट होते हैं तो भारत भी नष्ट हो जाएगा. तब भारत भारत नहीं रहेगा. दुनिया में भारत का अपना मिशन ही खत्म हो जाएगा. गांवों का पुनरुज्जीवन तभी संभव है जब उनका शोषण समाप्त हो. बडे पैमाने के औद्योगीकरण से अनिवार्यतः ग्रामवासियों का निष्क्रीय अथवा सव्यि शोषण होगा, क्योंकि औद्योगीकरण के साथ प्रतियोगिता और विपणन की समस्याएं जुडी हुई हैं.
इसलिए हमें गांवों को स्वतःपूर्ण बनाने पर जोर देना होगा जो अपने इस्तेमाल की चीजें खुद बनाएंगे. यदि ग्राम उद्योगों के इस स्वरूप की रक्षा की जाती है तो फिर ग्रामवासियों द्वारा उन आधुनिक मशीनों और औजारों का इस्तेमाल करने पर भी कोई आपनि नहीं है जिन्हें वे बना सकते हों और जिनका इस्तेमाल करने का सामर्थ्य उनमें हो. यह जरूर है कि उन्हें दूसरों के शोषण का साधन नहीं बनाया जाना चाहिए.
हरि, 29-8-1936, पृ. 226
अहिंसक अर्थव्यवस्था
आप फैक्टरी सभ्यता के उपर अहिंसा का भवन खडा नहीं कर सकते, पर स्वतःपूर्ण गांवों के उपर कर सकते हैं... ग्राम अर्थव्यवस्था की जो मेरी धारणा है, उसमें शोषण का कोई स्थान नहीं है, और शोषण ही हिंसा का सार है. इसलिए यदि आप अहिंसक बनना चाहते हैं तो आपको अपने अंदर गांव की मानसिकता का विकास करना होगा और गांव की मानसिकता के मानी हैं चरखे में आस्था.
हरि, 4-11-1939, पृ. 331


हमें दो में से एक चीज चुननी होगी - गांवों का भारत जो उतने ही प्राचीन हैं जितना कि स्वयं भारत है, या शहरों का भारत जो विदेशी आधिपत्य की देन हैं. आज प्रभुत्व शहरों का है, जो गांवों को इस तरह चूस रहे हैं कि वे खंडहर हुए जा रहे हैं. मेरी खादी की मानसिकता मुझे बताती है कि जब शहरों का प्रभुत्व समाप्त हो जाएगा तो वे गांवों के सहायक की भूमिका में आ जाएंगे. गांवों का शोषण अपने आप में एक संगठित हिंसा है. यदि हम चाहते हैं कि स्वराज अहिंसा पर आधारित हो तो हमें गांवों को उनका उचित स्थान देना होगा .
हरि, 20-1-1940, पृ. 423
आहार विषयक सुधार
चूंकि गांवों के आर्थिक पुनर्गठन का काम आहार विषयक सुधारों से शुरू किया गया है, इसलिए इस बात का पता लगाना आवश्यक है कि वे सादे-से-सादे और सस्ते खाद्य पदार्थ कौन-से हैं जिनसे ग्रामवासी अपने खोए हुए स्वास्थ्य को पुनः प्राप्त कर सकते हैं. उनके आहार में हरे पने शामिल करने से वे उन अनेक बीमारियों का शिकार होने से बच सकेंगे जिनसे वे इस समय ग्रस्त हैं.
ग्रामवासियों के आहार में विटामिनों की कमी है; इनमें से बहुत-से विटामिन ताजे हरे पनों से मिल सकते हैं. एक प्रसिद्ध डाक्टर ने मुझे बताया है कि हरे पनों के सही इस्तेमाल से आहार विषयक प्रचलित विचारों में वंति आ सकती है और जो पोषण इस समय दूध से मिल रहा है, वह हरे पनों से प्राप्त किया जा सकता है.
हरि, 15-2-1935, पृ. 1
शक्तिचालित मशीनें
अगर प्रत्येक गांव के सभी घरों में बिजली आ जाए तो मुझे ग्रामवासियों द्वारा अपनी मशीनों और औजारों को बिजली से चलाए जाने पर कोई आपनि नहीं होनी चाहिए. लेकिन बिजलीघरों का स्वामित्व या तो राज्य के पास होना चाहिए या ग्राम समुदायों के पास, जैसा कि इस समय चरागाहों के विषय में है. लेकिन जहां न बिजली है, न मशीनें हैं, वहां खाली हाथ क्या करें ?
हरि, 22-6-1935, पृ. 146


मैं हजारों गांवों में लगी अनाज पीसने की चक्कियों को लाचारगी की हद मानता हूं. मेरा अनुमान है कि इन सभी इंजनों और चक्कियों का विनिर्माण भारत में ही नहीं होताकृ गांवों में बडी संख्या में इन मशीनों और इंजनों को लगाना लोभ-लालच की निशानी भी है. क्या गरीब आदमी के पेट पर लात मारकर इस तरह अपनी जेब भरना ठीक है ? ऐसी हर मशीन हजारों हथचक्कियों को बेकार कर देती है जिससे हजारों घरेलू औरतें बेरोजगार हो जाती हैं और चक्कियां बनाने वाले कारीगरों का धंधा चौपट हो जाता है.
इसके अलावा यह भी है कि यह प्रवृनि संवमक होती है, इसलिए यह गांव के सभी उद्योगों को अपनी चपेट में ले लेगी. अगर ग्रामोद्योग नष्ट हो गए तो कलाओं का भी क्षय हो जाएगा. हां, अगर पुरानी दस्तकारियों का स्थान नयी दस्तकारियां ले लें तो कोई विशेष आपनि की बात नहीं है. लेकिन वैसा नहीं होता. जिन हजारों गांवों में शक्तिचालित आटा चक्कियां लग गई हैं, वहां मुंह अंधेरे सुनाई देने वाला हथचक्कियों का मधुर संगीत अब सदा के लिए सो गया है.
वर्तमान पंचायत राज और गांधीवादी पंचायत राज का तुलनात्मक विश्लेषण
डॉ. रमेश चन्द्र शर्मा
गांधी चिन्तन स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व एवम् पश्चात् स्वदेशी एवं विदेशी बुद्धिजीवी वर्ग की दिलचस्पी को अपनी ओर आछष्ट करता रहा है. रोम्या रोलां ने लिखा है कि अगर भारत को समझना है तो गांधी और स्वामी विवेकानन्द को समझो वह सम्पूर्ण भारतीय संस्छति के प्रतिनिधि की झलक है. गांधीजी ने भारतीय परम्परा और संस्छति का सूक्ष्मतथा विशाल  दृष्टि से उसकी आन्तरिक शक्ति एवं निरन्तरता को समझा. इसी  दृष्टि के निर्माण में संस्कारिक जडताओं से मुक्ति की चेष्टा प्रखरतम रूप से मौजूद है. गांधी सद्गुणी व्यक्ति एवं नैतिकता परक समाज के प्रयोजन से प्रेरित ऐसे जनतंत्र के पक्षधर थे.
4 नवम्बर 1948 को संविधान के द्वितीय प्रारूप पर विचार करने हेतु जब संविधान सभा की बैठक हुई, बैठक में इस आधार पर संविधान की आलोचना हुई कि यह संविधान न तो भारतीय है और ना ही गांधीवादी. प्रोफेसर एन.जी. रंगा ने स्पष्ट रूप से कहा था कि प्रारूप संविधान में गांधी तथा उन असंख्य शहीदों जिनके कारण संविधान सभा का गठन सम्भव हुआ, की महान सेवाओं का उल्लेख और सिद्धान्तों का समावेश नहीं किया गया है.1 शिबनलाल सक्सेना ने प्रारूप का विरोध करते हुए कहा था कि यह उन सब उद्देश्यों का प्रतिवाद है जिसके लिए गांधी ने संघर्ष किया था.2 महावीर त्यागी इस निर्मित संविधान से अत्यन्त असंतुष्ट थे. उन्होंने संविधायकों से अपील की थी कि उन्हें इस प्रारूप की परख गांधी के दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर करनी चाहिए और इस बात को सुनिश्चित करना चाहिए कि गांधी की मृत्यु के बाद इतनी जल्दी ही देश से गांधी दृष्टिकोण का विलोप न हो पाये .3 डॉ. अम्बेडकर का कहना था कि गांव संकीर्णता, अज्ञानता, अंधविश्वास और साम्प्रदायिकता व निम्न स्वार्थ़ों की पूर्ति का अण्डा है. ग्रामीण गणतंत्र के कारण भारत का नाश हुआ है. ग्राम पंचायतों को संविधान का आधार बनाना आत्मघाती और खतरनाक सिद्ध होगा. विकेन्द्रीकरण से अन्याय, अत्याचार बढेगा, रूढिवादी कट्टर पंथी सना हथिया लेंगे. गांधीगप्रारूप हरिजन और गरीब का उत्थान करने वाला नहीं है बल्कि इसका यथार्थ व्यान्वयन भी असम्भव है.4 संविधान सभा और उसके बाहर ग्राम पंचायतों के प्रति अभिव्यक्त अगाध प्रेम, विश्वास और राज व्यवस्था का आधार बनाये जाने की वकालत संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों को आश्वस्त नहीं कर सके.
संविधायक सच्चे मन से पंचायत राज व्यवस्था सम्बन्धी गांधी विचारों को स्थापित करना नहीं चाहते थे अन्यथा संविधान निर्माण के प्रथम डांफ्ट, संविधान की प्रस्तावना इत्यादि में इसका उल्लेख पहले ही किया जा सकता था. यह कार्य तो गांधी समर्थकों द्वारा जीवन्त बहस का परिणाम रहा है. इससे भी अधिक महत्वपूर्ण कारण गांधी के सच्चे वारिस होने का दावा किया जा सके, इसलिए ऐसा किया गया अन्यथा पंचायत राज पर विस्तृत विवरण, दिशा निर्देश संविधान में निहित होते; जैसे शक्तियां, निर्वाचन, विनीय प्रबन्धन इत्यादि. स्वतंत्र भारत के संविधान में अध्याय चार अनु 40 स्पष्ट करता है कि राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए अग्रसर होगा तथा उसको ऐसी शक्तियां और अधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत शासन की इकाईयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक है.
73वां संविधान संशोधन अधिनियम 1992 की धारा 2 4 में संशोधन के साथ ही संविधान भाग 9वी और 11वी अनुसूची को प्रतिस्थापित करता है.6 राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के अनुसरण में पहली बार सम्पूर्ण देश में पंचायती राज की संविधानिक व्यवस्था की गई है. इसके अनुसार ग्राम सभा के सदस्यों के लिए सीटों का जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण, महिलाओं के लिए कम से कम 33 प्रतिशत सीटों का आरक्षण, पंचायतों की अवधि पांच वर्ष करने व किसी पंचायत को भंग कर देने पर छः माह में चुनाव कराने की व्यवस्था की गई है. 11वी अनुसूची में पंचायतों के कार्य क्षेत्र में आने वाले विषय दिए गए हैं.
गांधी के विचारों के अनुरूप पंचायत राज में गणराज्य के सभी गुण होने चाहिए. जिसमें स्वावलम्बन, स्वशासन आवश्यकतानुसार स्वतंत्रता और विकेन्द्रीकरण तथा कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका के सभी अधिकार पंचायत के पास हों. निर्णय आम सहमति या जनहित में हो, न कि मत गिनती द्वारा गांवों में गरीबी और बेरोजगारी निवारण जैसी सभी नीतियां निर्मित करने का दायित्व व अधिकार रखते हों. वास्तव में ग्राम का नागरिक बेरोजगार, भूखा, वस्त्रहीन न रहें ऐसे दायित्वों की पूर्ति का कार्य पंचायतें करेंगी. अर्थात् व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकता - भोजन, वस्त्र, आवास की जिम्मेदारी गांव अपने स्तर पर प्रबन्ध करेगा. लोगों में प्रतिस्पर्धा के स्थान पर सहयोग हो, अगर प्रतिस्पर्धा भी होगी तो अधिक सेवा करने की. चुनाव में शारीरिक श्रम करने वाले जनप्रतिनिधि खडे किए जाएंगे. समाज सेवी सदस्य को जनता स्वयं खडा करेगी, न कि राजनैतिक दलों द्वारा खडे किए गये व्यक्तियों में से किसी एक को वोट देना जनता की मजबूरी होगी. वास्तव में आज के प्रतिनिधियों को जन इच्छा का प्रतिनिधि कहना ही गलत है. जनता द्वारा निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की जवाबदारी सुनिश्चित होगी. कदाचार, अनैतिकता और जनहित के विपरित आचरण की स्थिति में 75 प्रतिशत जनता की इच्छा के अनुसार प्रतिनिधि को वापिस बुलाया जा सकेगा. गांधीय पंचायतराज सामूंिक वृत के अनुरूप होगा. .पर के स्थान पर नीचे से .पर की ओर सना का विकेन्द्रीकरण होगा, यही गांधी के सपनों का पंचायत राज है.7
प्रश्न यह उठता है कि गांधीजी ने पंचायत राज को क्यों इतनी प्रधानता दी? वे भारत को जितनी अच्छी तरह जानते थे अन्य कोई उतना अच्छी तरह नहीं समझाता था. वे भारतीय मानस को समझने वाले व्यक्ति थे.
उन्होंने समझा कि नव जाग्रत भारत का मानव जो ग्रामों में रहता है, अपनी गरिमा और गौरव को पंचायत के पुनरुत्थान द्वारा ही प्राप्त कर सकता है. भारत गांवों में बसता है और जब तक गांवों का सामाजिक एवं आर्थिक विकास नहीं होगा तब तक भारत का विकास सम्भव नहीं है. वे लोग भारत का ही नाश करेंगे जो गांवों को कमजोर करके उनका नाश करेंगे.
स्वतंत्रता के पश्चात पंचायत राज की स्थापना के लिए समय-समय पर शोध कार्य होते रहे और सुझाव सरकारों के पास आते गये. बलवन्त राय मेहता कमेटी, एल एम सिंघवी कमेटी जिसमें मुख्य है. संविधान का 73वां संशोधन सरकारी पंचायत राज की स्थापना में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है. स्वतंत्रता से आज तक ग्राम विकास के घोषित कार्यव्मों के पीछे वोट की राजनीति हावी रही है. गांधी दृष्टि के नाम का उपयोग करना और गांधीजी के सिद्धान्तों से दूर रहने की प्रवृति इनके पीछे व्याप्त रही है. उपरोक्त संशोधन द्वारा स्थापित निर्वाचन प्रणाली, दलबन्दी, गुटबन्दी, स्वार्थ, घृणा, द्वेष, हिंसा का विस्तार करनेवाली है, जिसकी गांधी सदैव खिलाफत करते रहे हैं. गांधी विचार के अनुसार प्रत्यक्ष जनता द्वारा स्थापित जन-प्रतिनिधि चुनाव द्वारा ही ऐसे दोषों से बचा जा सकता है. आज की व्यवस्था प्रतिनिधि व्यवस्था के एक अंग रूप में है, जो आत्मनिर्भरता के स्थान पर केन्द् पर निर्भरता में वृद्धि ही करता है. इसमें निर्णय, नियोजन, प्रव्या निर्धारण का आरम्भिक बिन्दु राजधानी है, जबकि गांधी चिन्तन में गांव होना चाहिए, सना पीरामिड के अनुसार .पर से नीचे को विकेन्द्ित होती है. गांधी विचार सना नीचे से .पर जानी चाहिए. सरकार द्वारा स्थापित पंचायतों का मुख्य उद्देश्य, लक्ष्य की सिद्धी है. सिद्धान्त प्रायः गौण हैं. जबकि गांधी सिद्धान्त व साधनों को प्रथम स्थान देते हैं. गांधी ग्राम पंचायत के स्थान पर स्थापित पंचायती राज प्रभावी लाभदायक एजेन्सी मात्र बनकर रह गया है. भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सही कहा था "हम बापू के सपनों का पंचायत राज स्थापित नहीं कर सके." वर्तमान पंचायती राज व्यवस्था में गांधी की ग्रामगस्वराज योजना को ढूंढना मृग-मरीचिका होगा.
गांधी विचार गांव के सम्बन्ध में जीवन जीने की एक समग्र योजना है. जिसमें व्यक्ति की स्वतंत्रता को सर्वोच्च महत्व देने के साथ समाज की सर्वोपरिता के साथ सामंजस्य है. वांछित लक्ष्यों की पूर्ति के लिए सत्य अहिंसा के साधन अपनाने की बात कही गयी है. वर्तमान में स्थापित पंचायत योजना में गांधी चिन्तन को ढूंढना चाहें तो वह मिलना दूभर है क्योंकि दोनों संकल्पनाओं में कोई साम्य नहीं.
गांधी जहां आत्मनिर्भर गांव की कल्पना करते हैं, वहम् आज हमारे गांव वैश्वीकरण के युग में अपनी अधिकतर आवश्यकताओं के लिए पराश्रित होते चले जा रहे हैं. इस योजना में गांव को आत्मनिर्भर बनाने का आधार नहीं बनाया गया.
और न ही इस दिशा में सार्थक योगदान किया गया. अतः वर्तमान पंचायत राज गांधी की अवधारणा से मेल नहीं खाता है. गांधीजी और संविधायकों की सोच में भारी अन्तर रहा है. इसी के परिणामस्वरूप पंचायत राज सरकारी कार्यव्म बनकर रह गया.
73वें संविधान संशोधन के बाद पंचायत राज लोकतंत्र की एक ईकाई के रूप में प्रकट हुआ है. अधिकांश पंचायत की योजनाएं केन्द्से निर्मित होती हैं. ऐसे में इसे गांधी का पंचायत राज कैसे कहा जा सकता है ? जनता को सना वापसी की सिद्धान्त बात यह संशोधन करता है, लेकिन मौजूदा व्यवस्था में ऐसा पंचायती राज असम्भव है. आज सरकार व जनता में साफ बात कहने की हिम्मत नहीं है. यह क्यों नहीं कहा जाता कि हमें पंचायत राज नहीं बल्कि गांवों को आधुनिक विकास का साधन और गांवों का 'वैश्वीकरणवादी' बाजारीकरण करने के लिए एक एजेन्सी की आवश्यकता है क्योंकि इसी दिशा में हम बढ रहे हैं. वास्तव में पंचायती राज की वर्तमान व्यवस्था आम जनता को लोकशाही की प्रव्या में अपना प्रत्यक्ष योगदान करने से वंचित रखने का माध्यम बन गयी है, जबकि गांव ही ऐसा स्तर है, जहां स्वशासन में जनता का प्रत्यक्ष योगदान हो सकता है. पंचायत राज संशोधन कानून का मुख्य प्रावधान केवल चुनावों से संबंधित है. जनता के हाथ में सना वास्तव में तभी आएगी जब हर गांव की अपनी पंचायत होगी. आज की तरह दो-चार-पांच गांवों को मिलाकर नहीं आ सकती है. पंचायतों में राजनैतिक फायदा उठाने की दृष्टि से चुनावों में उनके लिए अलग-अलग तरीकों से आरक्षण का प्रावधान किया गया है जो धार्मिक तथा जातिगत भेदभाव को ही प्रोत्साहन देता है, ये सब बातें गांधी ग्राम स्वराज्य के लिए घातक है.
राजनीति विश्लेषक रजनी कोठारी अपनी पुस्तक "भारत में राजनीति"9 में लिखते हैं कि पंचायत राज में बालिग मताधिकार, राजनैतिक दलों की स्पर्धा और आर्थिक योजनाओं तथा जनता की भलाई के कार्य़ों के चालू होने से जातियों के मुखियाओं का महत्व बढ गया है. राजनैतिक नेताओं को इनसे व्यवहार करना पडता है. इस प्रकार गांवों के सामाजिक ढांचे का राजनीतिकरण हो रहा है. शासन तथा राजनीतिक दलों का नीचे की ओर फैलाव हो रहा है. जिससे भारतीय समाज के शक्ति के ढांचे में परिवर्तन आ गया है लेकिन शक्ति के इस फैलाव से गांधी की कल्पना के स्वावलम्बी ग्राम समाज की स्थापना नहीं हुई है. राजनीतिक संगठन या शासन की इकाई के रूप में गांव का महत्व घटा है. ग्राम सुधार या सामुदायिक शिक्षा, प्रचार, यातायात, जातीय संगठनों आदि के द्वारा गांव .पर के स्तर से प्रभावित होते हैं.
संविधान निर्माताओं ने चाहे दबाव में ही सही, पंचायतराज व्यवस्था का समावेश संविधान में आधे-अधूरे मन से किया हो परन्तु इसका दूरगामी प्रभाव पडा है. इससे भारतीय राज व्यवस्था का विकेन्द्ीकरण हो रहा है और देश में एक सी स्थानीय संस्थाओं के निर्माण से उसकी एकता भी बढ रही है. संभव है इस कदम का दूरगामी महत्व नेताओं ने उस समय न समझा हो, प्रशासनिक और बौद्धिक क्षेत्रों में इसकी सफलता में उन्हें संदेह था और इसका मजाक उडाया गया था. परन्तु आज इसके महत्व एवम् सफलता के कार्य़ों को विस्मृत नहीं किया जा सकता. यह गांधी विचारों की दूरदर्शिता की श्रेष्ठता को स्वमेव प्रमाणित कर देता है.
73वां संशोधन अधिनियम स्थानीय सरकार को मात्र संवैधानिक दर्जा देता है. सना के विकेन्द्ीकरण के लिए स्थानीय सरकार को स्वतंत्र इकाई का दर्जा देना आज भी बाकी है. इस अर्थ में सना के विकेन्द्ीकरण और स्वतंत्र निकाय वाली पंचायत ग्रामीण गणतंत्र का गांधी-सपना सपना ही रहेगा.
देश के अन्दर विकेन्द्ीकरण की जब एक पृष्ठभूमि है, कानून निर्मित हो चुके हैं, परन्तु जिन सही अर्थ़ों में यह डिसेंटंलाइजेशन होना चाहिए था, यह उन अर्थ़ों में नहीं हुआ है. संविधान में "यूनिट ऑफ सेल्फ गवर्नमेन्ट" लिखा है जब कि गांधीजी ने "सेल्फ सफिश्येंट विलेज रिपब्लिक" कहा था. यह जो बनाये हुए ढांचे हैं, वह खोखले रह गये हैं. पंचायतों को अधिकार, जिम्मेदारियां वा साधन विशेषतः प्रदान नहीं किए गए हैं, न ही नौकरशाही कार्य़ों के व्यान्वयन हेतु प्रदान की गई. जो नौकरशाही वहां है, वह तो वहां 'मालिकशाही' बन चुकी है.
यह संशोधन निर्धारित समय में निर्वाचन कराने की व्यवस्था करता है परन्तु निर्धारित समय पर निर्वाचन नहीं कराने पर राज्य सरकारों के विरुद्ध क्या कार्यवाही की जा सकती है और कैसे, इस पर संविधान में कुछ नहीं लिखा है. इस प्रकार की जो भी टेक्निकल कमियां हैं उन्हें दूर करना होगा.
निष्कर्ष के रूप में इतना ही कहना है कि गांधी के पंचायत राज और वर्तमान सरकारी पंचायतों का कहना भ्रम उत्पन्न करना है. दोनों का तुलनात्मक विश्लेषण यह स्पष्ट करता है कि गांधी का पंचायत राज चाहे काल्पनिक कहा जाए, परन्तु वह श्रेष्ठ है. अगर गांधी का पंचायत राज लागू करना है तो सम्पूर्ण व्यवस्था में बदलाव लाना होगा, नागरिकों को निर्भीकता, सीमित आवश्यकता, परोपकार और पारदर्शीभावना, नैतिक चरित्र की श्रेष्ठता से कार्य करना होगा. सरकारों की तरफ मुखापेक्षा तक छोडनी होगी तभी हम गांधी पंचायत राज की ओर बढ सकते हैं.


संदर्भ ग्रंथ
1.
प्रो. एन.जी. रंगा, सभावाद वादविवाद, खण्ड 11, भारत सरकार प्रकाशन 1966, पृ. 349
2.
शिब्बन लाल सक्सेना, संविधान सभावाद वाद विवाद, खण्ड 11,
भारत सरकार प्रकाशन 1966, पृ. 1209
3.
महावीर त्यागी, संविधान सभावाद वाद विवाद, खण्ड 11,
भारत सरकार प्रकाशन 1966, पृ. 360
4.
डॉ. अम्बेडकर, संविधान सभावाद वाद विवाद, खण्ड 7, भारत सरकार प्रकाशन 1967,
पृ. 39,257 से 259
5.
भारतीय संविधान, भारत सरकार, 1991, पृ. 141
6.
जयनारायण पाड्ये, भारत का संविधान, 1966, इलाहाबाद, पृ. 422-426
7.
महात्मा गांधी, मेरे सपनों का भारत, 1969, वाराणसी सर्व सेवा संघ, पृ. 62
8.
ठाकुर दास बंग, असली स्वराज्य, 1995, वाराणसी, सर्व सेवा संघ, पृ. 32
9.
रजनी कोठारी, भारत में राजनीति, लोंगमेन, पृ. 93

समाप्त

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